मुंबई के बिजनेस के बेटे और पेशे से चार्ट्ड अकाउंटेंड मोक्षेष ने जैऩ भिक्षु बनने का फैसला लिया है। मोक्षेष करोड़ों की सपंत्ति के मालिक हैं, इसके बावजूद उन्होंने जैन भिक्षु बनने का फैसला लिया। शुक्रवार को उन्हें तपोवन सर्किल गांधीनगर अहमदाबाद रोड़ पर एक सेरेमनी में जैन भिक्षु बनेंगे। संन्यास का कार्यक्रम बुधवार (18 अप्रैल) से शुरू हुआ और आज शुक्रवार (20 अप्रैल) को पूरा होगा। संन्यास के बाद मोक्षेष जैन धर्म के शिक्षाओं के अनुरूप जीवन गुजारेंगे। मोक्षेष सेठ का परिवार जेके कॉर्पोरेशन का मालिक है जो हीरे, मेटल और सुगर इंडस्ट्रीज से जुड़े कारोबार करती है। जेके कॉर्पोरेशन का सालाना कारोबार 100 करोड़ से अधिक का बताया जा रहा है। गांधीनगर-अहमदाबाद मार्ग पर स्थित तपोवन सर्किल में मोक्षेश के संन्यास से जुड़ी रस्म हो रही है।
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार मोक्षेष ने संन्यास लेने के बारे में कहा, अब वो अकाउंट बुक्स के बजाय धर्म का "ऑडिट" करेंगे। मोक्षेष ने टीओआई से कहा, "मैं जब 15 साल का था तब मेरे दिल में साधु बनने का ख्याल आया था। मैं मन की शांति चाहता था जो भौतिक संसार में नहीं मिल रही थी।" मोक्षेश के अनुसार वो सभी के लिए प्रसन्नता चाहते हैं न कि केवल अपने लिए।
मोक्षेष का परिवार मूलतः गुजरात के डेसा का रहने वाला है। उनके परिवार करीब 60 साल पहले मुंबई में आ बसा। उनके पिता संदीप सेठ और चाचा गिरीश सेठ मुंबई में संयुक्त परिवार में रहते हैं। मोक्षेष के तीन बड़े भाई हैं। मोक्षेष ने मानव मंदिर स्कल से 93.38 प्रतिशत अंकों के साथ 10वीं और 85 प्रतिशत अंकों के साथ 12वीं की परीक्षा पास की। मोक्षेष ने एचआर कॉलेज से कॉमर्स में स्नातक किया। साथ ही वो चार्टेड अकाउंटेंट की परीक्षा देते रहे और उसमें सफल हुए। मोक्षेष अपने परिवार के मेटल से जुड़े कारोबार में काम करने लगे।
मोक्षेष के चाचा ने गिरीश सेठ ने टीओआई को बताया कि मोक्षेष ने करीब आठ साल पहले संन्यास लेने की इच्छा जतायी थी। परिवार के समझाने पर वो अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए तैयार हुए। गिरीश सेठ ने बताया कि उनके परिवार के 200 सालों के इतिहास में जैन साधु बनने वाले पहले पुरुष होंगे। गिरीश सेठ के अनुसार मोक्षेश से पहले उनके परिवार की पाँच महिलाएँ जैन साध्वी बन चुकी हैं। मोक्षेष ने बताया कि उन्होंने इस साल जनवरी में साधु बनने के उनकी इच्छा को परिवार की सहमति मिली। मोक्षेष के 85 वर्षीय दादा भी उनके साथ साधु बनना चाहते थे लेकिन उन्हें इसकी जैन धर्मगुरुओं से अनुमति नहीं मिली। वरिष्ठ जैन धर्मगुरुओं ने उनके दादा को समाज में रहकर समाज की सेवा करने का सुझाव दिया।