बच्चे जब तक छोटे होते हैं अपने पेरेंट्स का कहा मानते हैं लेकिन जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं और उनमें समझ आने लगती हैं वे अपने पेरेंट्स का कहा अनसुना करने लगते हैं। ऐसे में समय के साथ बच्चे गलत राह पकड़ लेते हैं और इस नाज़ुक दौर में बच्चे बिगड़ते चले जाते हैं। ऐसे में पेरेंट्स की जिम्मेदारी बनती हैं कि अपने बच्चों की समझाइश करें और उन्हें सही रास्ते पर लेकर आए। पेरेंट्स का गलत कदम बच्चों के साथ रिश्ते बिगाड़ सकता हैं। ऐसे में आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि किस तरह बिगड़ते बच्चों को समझदारी से सही रास्ते पर लेकर आए।
बोलिए कम, सुनिए ज़्यादाइस उम्र के बच्चों को समझाने का तरीक़ा अलग होता है, जो पैरेंट्स को डेवलप करना चाहिए, क्योंकि डांट-डपटकर बात समझाने से बात बनने की बजाय बिगड़ सकती है। टीनएज से बात करते समय कान बड़े और ज़ुबान छोटी रखनी चाहिए यानी बोलना कम और सुनना ज़्यादा चाहिए। उनकी बात सुनिए और जब वे पूछें, तो ही अपनी राय रखिए। अगर वे राय नहीं मांगें, तो स़िर्फ सुनिए। बिना मांगे राय मत दीजिए। यदि राय देनी भी हो, तो तरीक़ा रिक्वेस्ट वाला होना चाहिए, न कि ऑर्डर वाला।
दूसरों से सीखिएहर किसी को टीनएज बच्चे को डील करने का तरीक़ा नहीं पता होता और इसमें कोई बुराई भी नहीं है, लेकिन यह तरीक़ा सीखना ज़रूरी है। अभिभावकों के लिए ज़रूरी है कि वे बच्चे में आए बदलावों के साथ एडजस्ट करें। टीनएज पैरेंटिंग एक कला है। कला में निपुण होने के लिए अभ्यास की ज़रूरत होती है। अपने आस-पास पड़ोस या रिश्तेदारी में आपको जिसकी पैरेंटिंग स्टाइल पसंद हो, उसके साथ हेल्दी डिस्कशन कीजिए। उनकी पैरेंटिंग स्टाइल पर राय लीजिए। रास्ते अपने आप बनते जाएंगे।
रिश्तों में खुलापन लाइएअभिभावक को अपने बच्चे के साथ ऐसा रिलेशन डेवलप करना चाहिए, जिससे उनका बच्चा बिना डर या झिझक के उनके साथ अपनी हर तरह की बात शेयर कर सके। बच्चे को अकेलेपन का एहसास नहीं होने देना चाहिए। पैरेंट्स के दिमाग़ में इतना खुलापन होना चाहिए कि वे इस बात को स्वीकार कर सकें कि अगर बच्चा कुछ ग़लत भी कर रहा है, तो बच्चा नहीं, बल्कि उसका काम ग़लत है। अगर आप बच्चे को ही ग़लत ठहरा देंगे तो सारे रास्ते बंद हो जाएंगे, इसलिए पैरेंट्स को बच्चे के व्यवहार को ग़लत ठहराना चाहिए, न कि बच्चे को। कहने का अर्थ यह है कि बच्चे को रिजेक्ट न करें। पैरेंट्स को अपने बच्चे को इतनी छूट देनी चाहिए कि कोई ग़लती होने पर वो उनके पास आकर उसे स्वीकारें, न कि डर के मारे उस पर परदा डाल दें।
कमियों को स्वीकारेंइस उम्र के बच्चे को भी अटेंशन चाहिए होता है। उसके क़रीब जाने के लिए उसकी तारीफ़ कीजिए। उसके फेलियर को भी स्वीकार करना सीखिए और उसकी कोशिशों के लिए उसका हौसला बढ़ाइए। इससे उसका स्ट्रेस लेवल कम होगा और वो आपके क़रीब आएगा।
रिएक्ट, नहीं एक्ट कीजिएअभिभावकों को बच्चे की ग़लती पर तुरंत किसी तरह का रिएक्शन नहीं देना चाहिए। अगर आप उन पर ग़ुस्से से चिल्लाएंगे, तो वो भी आप पर चिल्ला सकता है, इसलिए उसकी बात सुनिए और तुरंत रिएक्ट करने की बजाय एक्ट कीजिए। एक्ट करने का मतलब है कि सोच-समझकर बोलना या फैसला देना।
ज़िम्मेदारी सौंपिएबढ़ते बच्चे के स्वतंत्र व्यक्तित्व को मान्यता देना ज़रूरी है। उसे रोकने-टोकने की बजाय ज़िम्मेदारी सौंपें। यानी इंस्ट्रक्टर नहीं, फेसिलिटेटर बनिए। यदि आप चाहते हैं कि बच्चा आपके मुताबिक़ चले, तो उसे अपनी जायदाद न समझिए। अपने अहम् को परे रखकर परिस्थिति को देखने का प्रयास करिए। बच्चों के साथ चर्चा करते रहिए। उसके लक्ष्य और उद्देश्य को सिरे से ख़ारिज करने से बचिए।