तकनीक की घुसपैठ ने रिश्तो के एहसास को किया कम, आइये जाने कैसे

कुछ सालो पहले तक हाल यह था कि त्योहारों पर जो रौनक होती थी, वो आज के दौर में लुप्त होती जा रही है। शादी हो या त्यौहार सामान की खरीददारी के लिए पूरा परिवार बाजारों के चक्कर लगाता रहता था। आज अकेले कमरे में बैठकर ऑनलाइन शॉपिंग से सब अलग- अलग अपनी- अपनी जरूरतों के सामान मंगा लेते है। ये सच है कि तकनीक ने हमे बहुत करीब लाने में मदद की है। लेकिन इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि तकनीक की घुसपैठ ने रिश्तो में से एहसासो को कम कर दिया है। आइये जाने कैसे-

फॉरवर्डेड मैसेजेस का दौर

पहले लोग त्योहारों की शुभकामनाएं अपने मित्र-संबंधियों के घर पर स्वयं जाकर देते थे। बाज़ारवाद के कारण पहले तो इसका स्थान बड़े और महंगे ग्रीटिंग कार्ड्स ने लिया, फिर ई-ग्रीटिंग्स ने उनकी जगह ली। ग्रीटिंग कार्ड या पत्र के माध्यम से अपने हाथ से लिखकर जो बधाई संदेश भेजे जाते थे, उसमें एहसास की ख़ुशबू शामिल होती थी, लेकिन उसकी जगह अब फेसबुक और व्हाट्सऐप पर मैसेज भेजे जाने लगे हैं। ये मैसेज भी किसी के द्वारा फॉरवर्ड किए हुए होते हैं, जो आगे फॉरवर्ड कर दिए जाते हैं। उनमें न तो कोई भावनाएं होती हैं, न ही भेजनेवाले की असली अभिव्यक्ति।

मेल मिलाप में कमी


संवादहीनता और अपनी बात शेयर न करने से आपसी जुड़ाव कम हो गया है।अब किसी के घर जाना समय की बर्बादी लगने लगा है, इसलिए बहुत ज़रूरी है तो ऑनलाइन गिफ़्ट ख़रीद कर भेज दिया जाता है।


बाज़ारवाद हावी

आजकल प्रत्येक क्षेत्र में बाज़ारवाद हावी हो रहा है। इस बनावटी माहौल में भावनाएं गौण हो गई हैं। ऑनलाइन संस्कृति ने अपने हाथों से उपहार को सजाकर, उसे स्नेह के धागे से बांधकर और अपनी प्यार की सौग़ात के रूप में अपने हाथों से देने की परंपरा को पीछे धकेल दिया है। बाज़ार में इतने विकल्प मौजूद हैं कि ख़ुद कुछ करने की क्या ज़रूरत है।

रसोई से गुम होती पकवानो की खुशबू

आजकल कोई घर पर आ जाता है, तो झट से ऑनलाइन खाना ऑर्डर कर उनकी आवभगत करने की औपचारिकता को पूरा कर लिया जाता है। कौन झंझट करे खाना बनाने का। यह सोच हम पर इसीलिए हावी हो पाई है, क्योंकि तकनीक ने जीवन को आसान बना दिया है। बस फ़ोन पर एक ऐप डाउनलोड करने की ही तो बात है।

रिश्तो की बदलती परिभाषा


परस्पर प्रेम और सद्भाव, सामाजिक समरसता, सहभागिता, मिल-जुलकर उत्सव मनाने की ख़ुशी, भेदभावरहित सामाजिक शिष्टाचार आदि अनेक ख़ूबियों के साथ पहले त्योहार हमारे जीवन को जीवंत बनाते थे और नीरसता या एकरसता को दूर कर स्फूर्ति और उत्साह का संचार करते थे, पर आजकल परिवार के टूटते एकलवाद तथा बाज़ारवाद ने त्योहारों के स्वरूप को केवल बदला नहीं, बल्कि विकृत कर दिया है। सचमुच त्योहारों ने संवेदनशील लोगों के दिलों को भारी टीस पहुंचाना शुरू कर दिया है।