कार्तिक मास की अमावस्या को दिवाली का पावन पर्व मनाया जाता हैं। यह पर्व धनतेरस से ही शुरू हो जाता हैं। इन दिनों में मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है और उनका आशीर्वाद पाया जाता हैं। भक्तगण इन दिनों में मां लक्ष्मी के मंदिरों के दर्शन करने पहुंचता हैं। आज इस कड़ी में हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं जहां इस त्यौहार पर भक्तों की बहुत भीड़ लगती हैं। हम बात कर रहे हैं कोल्हापुर के मां लक्ष्मी मंदिर के बारे में। यहां बड़ी तादाद में श्रद्धालु दर्शन के लिए यहां आते हैं। इस दौरान मंदिर को फूलों और खूबसूरत लाइटों से सजाया जाता है। श्रद्धालु पूरी आस्था के साथ मां लक्ष्मी के दर्शन करते हैं। आज इस कड़ी में हम आपको कोल्हापुर स्थित महालक्ष्मी मंदिर और इसकी विशेषताओं के बारे में बताने जा रहे हैं। आइये जानते हैं इसके बारे में...
महालक्ष्मी मंदिर का इतिहासकोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर का इतिहास सदियों पुराना है। माना जाता है कि मां लक्ष्मी की ये मूर्ति करीब 7 हजार साल पुरानी है। जानकारी के मुताबिक इसे 11 वीं सदी में स्थापित किया गया था। तभी से मंदिर की पूजा होती चली आ रही है। कई तथ्यों के अनुसार वर्तमान महालक्ष्मी मंदिर का निर्माण आज से लगभग 1300 वर्ष पहले अर्थात 7वीं शताब्दी में चालुक्य शासक राजा कर्णदेव ने कराया था। इसके बाद इस मंदिर का पुनर्निर्माण 9वीं शताब्दी में शिलहार यादव नामक राजा ने कराया।
महालक्ष्मी मंदिर की वास्तुकलाकोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर का निर्माण हेमाडपंथी शैली के अनुसार किया गया है। इस मंदिर परिसर में पाँच बड़ी मीनारें और एक मुख्य हॉल है। सबसे बड़े शिखर वाले मंदिर के गर्भगृह में देवी महालक्ष्मी विराजमान है, और उत्तर व दक्षिण वाले मंदिरों मे महा काली और सरस्वती माता विराजमान हैं। इस मंदिर में एक श्री यंत्र भी विराजमान है जो इन तीनों देवियों का प्रतिनिधित्व करता है।
मंदिर में चार प्रवेश द्वार हैं और मुख्य द्वार को महा द्वार कहा जाता है। इस मंदिर परिसर में भगवान विष्णु को समर्पित शेषशाही मंदिर, नवग्रह मंदिर, विट्ठल मंदिर और रखुमाई मंदिर भी विराजमान हैं। मंदिर के गर्भग्रह में कमल के फूल के ऊपर चार भुजाओं वाली खड़ी मुद्रा में माता लक्ष्मी की मूर्ति विराजमान है। एक पत्थर का शेर वाहन के रूप माता के पीछे खड़ा हुआ है। माता के मुकुट पर शेषनाग और एक शिव लिंग की छवि भी बनाई गई है, लेकिन भक्तों को दिखाई नहीं देता क्योंकि यह देवी के गहनों के नीचे दब गया है।
माता की मूर्ति की विशेषता कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर विशेष रूप से शक्तिवाद संप्रदाय प्रतिनिधित्व करता है। इसको 18 महा शक्ति पीठों में से एक माना जाता है। मान्यता है कि इन पीठों में पूजा पाठ करने से भक्तों को सभी प्रकार के बुराईयों से मुक्ति मिल जाती है। इस मंदिर में विराजमान माता की मूर्ति को एक ही पत्थर से बनाया गया है, और उसे विभिन्न प्रकार के आभूषणों से सजाया गया है। माता की यह मूर्ति लगभग 5000 साल पुरानी है। इसका वजन 40 किलोग्राम है। इस मंदिर परिसर के अंदर स्थित शेषशाही मंदिर के गुंबद पर 60 जैन तीर्थंकरों के चित्र भी बनाए गए हैं। जिन्हे लेकर मान्यता है कि यह मंदिर जैन तीर्थंकर नेमिनाथ को समर्पित है। लेकिन वर्तमान समय में यहाँ शेष नाग पर विराजमान भगवान विष्णु की एक मूर्ति की पूजा की जाती है।
मंदिर की पौराणिक मान्यता पौराणिक मान्यता के अनुसार एक बार भगवान विष्णु से रुष्ट होकर मां लक्ष्मी यहां आईं थी। तभी से मां लक्ष्मी यहीं पर निवास करती हैं। लक्ष्मी जी के 108 शक्तिपीठ माने गए हैं। कोल्हापुर की महालक्ष्मी इन्हीं शक्तिपीठों में से एक हैं। साल में एक बार इस मंदिर के अंदर सूर्य की सीधी किरणें पड़ती हैं। दिवाली और धनतेरस पर यहां पूजा करने का खास महत्व है। इस मंदिर की मिट्टी को बड़ा पवित्र माना जाता है। मान्यता है कि मंदिर परिसर की मिट्टी को उठाकर अगर तिजोरी में रख लिया जाए तो कभी धन की कमी कभी नहीं हो सकती है।
महालक्ष्मी मंदिर की विशेषताऐसी मान्यता है कि देवी सती के इस स्थान पर तीन नेत्र गिरे थे। यहां भगवती महालक्ष्मी का निवास माना जाता है। इस मंदिर की एक खासियत यह भी है कि साल में दो बार ही ऐसा समय आता है, जब सूर्योदय के समय सूर्य की किरणें देवी महालक्ष्मी की प्रतिमा को स्पर्श करती हैं। पहले दिन सूर्योदय के समय सूर्य की किरणें महालक्ष्मी के चरणों पर पहुँचती हैं। दूसरे दिन मध्य भाग में और तीसरे दिन माता लक्ष्मी के मस्तक को सूर्य की पहली किरण स्पर्श करती है। उस दिन पूरा गर्भगृह असंख्य रोशनियों से प्रकाशित हो जाता है। यह साल में दो बार ही होता है। हालाँकि यह मंदिर की वास्तुकला है या कोई चमत्कार, यह शायद कोई नहीं जनता।
यहां आने के बाद ही पूरी होती हैं तिरुपति यात्राकहा जाता है कि महालक्ष्मी अपने पति तिरुपति यानी विष्णु जी से रूठकर कोल्हापुर आईं थीं। यही कारण है कि तिरुपति देवस्थान से आया शाल उन्हें दीपावली के दिन पहनाया जाता है। यह भी कहा जाता है कि किसी भी व्यक्ति की तिरुपति यात्रा तब तक पूरी नहीं होती है जब तक व्यक्ति यहां आकर महालक्ष्मी की पूजा-अर्चना ना कर ले। यहां पर महालक्ष्मी को अंबाबाई नाम से भी जाना जाता है। दीपावली की रात मां की महाआरती की जाती है। मान्यता है कि यहां पर आने वाले हर भक्त की मुराद पूरी होती है।
महालक्ष्मी मंदिर की प्रचलित कथाकेशी नाम का एक राक्षस था जिसके बेटे का नाम कोल्हासुर था। कोल्हासुर ने देवताओं को बहुत परेशान कर रखा था। इसके अत्याचारों से परेशान होकर सभी देवगणों ने देवी से प्रार्थना की थी। तब महालक्ष्मी ने दुर्गा का रूप धारण किया और ब्रह्मशस्त्र से कोल्हासुर का सिर धड़ से अलग कर दिया। लेकिन कोल्हासुर ने मरने से पहले मां से एक वरदान मांगा। उसने कहा कि इस इलाके को करवीर और कोल्हासुर के नाम से जाना जाए। यही कारण है कि मां को यहां पर करवीर महालक्ष्मी के नाम से जाना जाता है। फिर बाद में इसका नाम कोल्हासुर से कोल्हापुर किया गया।