हवेलियों और महलों से ज्यादा रेत के मैदान का आनन्द लेने आते हैं पर्यटक, एक समग्र दृष्टि बीकानेर पर

राजस्थान राज्य का बीकानेर शहर अपने रेतीले धोरों के साथ-साथ यहाँ की हवेलियों और महलों को लेकर पर्यटन के क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है। देश-विदेश से आने वाले पर्यटक यहाँ के महलों और हवेलियों से ज्यादा अहमियत यहाँ के रेतीले धोरों को देते हैं। धूल के उठते हुए बवण्डरों को देखकर वे हैरान होते हैं और इन दृश्यों को अपने कैमरों में कैद करके वे खुशी से फूले नहीं समाते हैं। बीकानेर में पर्यटकों के देखने के लिए बहुत से स्थान हैं। यहाँ आने वाला हर पर्यटक कम से कम दस दिन का टूर प्रोग्राम बनाकर आता है, तभी जाकर वो बीकानेर को कुछ देख व समझ पाता है। पर्यटक स्थल के रूप में बीकानेर के महलों और हवेलियों को देखना किसी अपने आप में अनूठा है। बीकानेर के दर्शनीय स्थलों की जानकारी पाठकों को अलग से आलेख में दी जाएगी। आज बीकानेर शहर की चर्चा—

बीकानेर एक अलमस्त शहर है, अलमस्त इसलिए कि यहाँ के लोग बेफिक्र के साथ अपना जीवन यापन करते है। बीकानेर नगर की स्थापना के विषय मे दो कहानियाँ लोक में प्रचलित है। एक तो यह कि, नापा साँखला जो कि बीकाजी के मामा थे उन्होंने राव जोधा से कहा कि आपने भले ही राव सातल जी को जोधपुर का उत्तराधिकारी बनाया किंतु बीकाजी को कुछ सैनिक सहायता सहित सारुँडे का पट्टा दे दीजिये। वह वीर तथा भाग्य का धनी है। वह अपने बूते खुद अपना राज्य स्थापित कर लेगा। जोधाजी ने नापा की सलाह मान ली। और पचास सैनिकों सहित पट्टा नापा को दे दिया। बीकाजी ने यह फैसला राजी खुशी मान लिया। उस समय कांधल जी, रूपा जी, मांडल जी, नाथा जी और नन्दा जी ये पाँच सरदार जो जोधा के सगे भाई थे साथ ही नापा साँखला, बेला पडिहार, लाला लखन सिंह बैद, चौथमल कोठारी, नाहर सिंह बच्छावत, विक्रम सिंह राजपुरोहित, सालू जी राठी आदि कई लोगों ने राव बीका जी का साथ दिया। इन सरदारों के साथ राव बीका जी ने बीकानेर की स्थापना की।

बीकानेर की स्थापना के पीछे दूसरी कहानी ये है कि एक दिन राव जोधा दरबार में बैठे थे बीकाजी दरबार में देर से आये तथा प्रणाम कर अपने चाचा कांधल से कान में धीरे-धीरे बात करने लगे यह देख कर जोधा ने व्यँग्य में कहा “मालूम होता है कि चाचा-भतीजा किसी नवीन राज्य को विजित करने की योजना बना रहे हैं। इस पर बीका और कांधल ने कहा कि यदि आप की कृपा हो तो यही होगा। और इसी के साथ चाचा – भतीजा दोनों दरबार से उठ के चले आये तथा दोनों ने बीकानेर राज्य की स्थापना की। इस संबंध में एक लोक दोहा भी प्रचलित है-

पन्द्रह सौ पैंतालवे, सुद बैसाख सुमेर
थावर बीज थरपियो, बीका बीकानेर


बीकानेर के राजा


राव बीकाजी की मृत्यु के पश्चात राव नरा ने राज्य संभाला किन्तु उनकी एक वर्ष से कम में ही मृत्यु हो गयी। उसके बाद राव लूणकरण ने गद्दी संभाली।

बीकानेर की जलवायु

यहाँ की जलवायु सूखी, पंरतु अधिकतर अरोग्यप्रद है। गर्मी में अधिक गर्मी और सर्दी में अधिक सर्दी पडना यहाँ की विशेषता है। इसी कारण मई, जून और जुलाई मास में यहाँ लू (गर्म हवा) बहुत जोरों से चलती है, जिससे रेत के टीले उड़-उड़कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर बन जाते हैं। उन दिनों सूर्य की धूप इतनी असह्महय हो जाती है कि यहाँ के निवासी दोपहर को घर से बाहर निकलते हुए भी भय खाते हैं। कभी-कभी गर्मी के बहुत बढ़ने पर अकाल मृत्यु भी हो जाती है। बहुधा लोग घरों के नीचे भाग में तहखाने बनवा लेते हैं, जो ठंडे रहते है और गर्मी की विशेषता होने पर वे उनमें चले जाते हैं। कड़ी भूमि की अपेक्षा रेत शीघ्रता से ठंड़ा हो जाता है। इसलिए गर्मी के दिनों में भी रात के समय यहाँ ठंडक रहती है। शीतकाल में यहाँ इतनी सर्दी पड़ती है कि पेड़ और पौधे बहुधा पाले के कारण नष्ट हो जाते है।

बीकानेर में रेगिस्तान की अधिकता होने के कारण कुएँ का बहुत अधिक महत्व है। जहाँ कहीं कुआँ खोदने की सुविधा हुई अथवा पानी जमा होने का स्थान मिला, आरंभ में वहाँ पर बस्ती बस गई। यही कारण है कि बीकानेर के अधिकांश स्थानों में नामों के साथ सर जुड़ा हुआ है, जैसे कोडमदेसर, नौरंगदेसर, लूणकरणसर आदि। इससे आशय यही है कि इस स्थान पर कुएं अथवा तालाब हैं। कुएं के महत्व का एक कारण और भी है कि पहले जब भी इस देश पर आक्रमण होता था, तो आक्रमणकारी कुओं के स्थानों पर अपना अधिकार जमाने का सर्व प्रथम प्रयत्न करते थे। यहाँ के अधिकतर कुएं 300 या उससे फुट गहरे हैं। इसका जल बहुधा मीठा एंव स्वास्थ्यकर होता है।

धर्म

राज्य में हिंदु एवं जैन धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या सबसे अधिक है। सिख और इस्लाम धर्म को मानने वाले भी अच्छी संख्या में है। यहाँ ईसाई एवं पारसी धर्म के अनुयायी बहुत कम हैं। हिंदुओं में वैष्णवों की संख्या अधिक है। जैन धर्म में श्वेताबर, दिगंबर और थानकवासी (ढूंढिया) आदि भेद हैं, जिनमें थानकवासियों की संख्या अधिक है। मुसलमानों में सुन्नियों की संख्या अधिक है। मुसलमानों में अधिकांश राजपूतों के वंशज हैं, जो मुसलमान हो गए। उनके यहाँ अब तक कई हिंदु रीति-रिवाज प्रचलित हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ अलखगिरी नाम का नवीन मत भी प्रचलित है तथा जसनाथी नाम का दूसरा मत भी हिंदुओं में विद्यमान है।

वर्षा

जैसलमेर को छोड़कर राजपूताना के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा बीकानेर में सबसे कम वर्षा होती है। वर्षा के अभाव में नहरे कृषि सिंचाई का मुख्य स्रोत है। वर्तमान में कुल 23712 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई नहरों द्वारा की जाती है।

कृषि

अधिकांश हिस्सा अनुपजाऊ एंव जलविहीन मरुभूमि का एक अंश है। जगह-जगह रेतीले टीलें हैं जो बहुत ऊँचे भी हैं। बीकानेर का दक्षिण-पश्चिम में मगरा नाम की पथरीली भूमि है जहाँ अच्छी वर्षा हो जाने पर किसी प्रकार पैदावार हो जाती है। उत्तर-पूर्व की भूमि का रंग कुछ पीलापन लिए हुए हैं तथा उपजाऊ है।

यहाँ अधिकांश भागों में खरीफ फसल होती है। ये मुख्यत: बाजरा, मोठ, ज्वार, तिल और रुई है। रबी की फसल अर्थात गेंहु, जौ, सरसों, चना आदि केवल पूर्वी भाग तक ही सीमित है। नहर से सींची जाने वाली भूमि में अब गेंहु, मक्का, रुई, गन्ना इत्यादि पैदा होने लगे हैं।

खरीफ की फसल यहाँ प्रमुख गिनी जाती है। बाजरा यहाँ की मुख्य पैदावार है। यहाँ के प्रमुख फल तरबूज एवं ककड़ी हैं। यहाँ तरबूज की पैदावार बहुतायत से होती है। अब नहरों के आ जाने के कारण नारंगी, नींबू, अनार, अमरुद, आदि फल भी पैदा होने लगे हैं। शाकों में मूली, गाजर, प्याज आदि सरलता से उत्पन्न किए जाते हैं।

जंगल

बीकानेर में कोई सधन जंगल नहीं है और जल की कमी के कारण पेड़ भी यहाँ कम है। साधारण तथा यहाँ खेजड़ा (शमी) के वृक्ष बहुतायत में हैं। उसकी फलियाँ, छाल तथा पत्ते चौपाये खाते हैं। नीम, शीशम और पीपल के पेड़ भी यहाँ मिलते हैं। रेत के टीलों पर बबूल के पेड़ पाए जाते हैं।

थोड़ी सी वर्षा हो जाने पर यहाँ अच्छी घास हो जाती है। इन घासों में प्रधानत: भूरट नाम की चिपकने वाली घास बहुतायत में उत्पन्न होती है।

पशु-पक्षी


यहाँ पहाड़ व जंगल न होने के कारण शेर, चीते आदि भयंकर जंतु तो नहीं पर जरख, नीलगाय आदि प्राय: मिल जाते है। घास अच्छी होती है, जिससे गाय, बैल, भैंस, घोड़े, ऊँट, भेड़, बकरी आदि चौपाया जानवर सब जगह अधिकता से पाले जाते हैं। ऊँट यहाँ बड़े काम का जानवर है तथा इसे सवारी, बोझा ढोने, जल लाने, हल चलाने आदि में उपयोग किया जाता है। पक्षियों में तीतर, बटेर, बटबड़, तिलोर, आदि पाए जाते हैं।

बीकानेर की संस्कृति

पोशाक


शहरों में पुरुषों की पोशाक बहुधा लंबा अंगरखा या कोट, धोती और पगड़ी है। मुसलमान लोग बहुधा पाजामा, कुरता और पगड़ी, साफा या टोपी पहनते हैं। संपन्न व्यक्ति अपनी पगड़ी का विशेष रूप से ध्यान रखते हैं, परंतु धीरे-धीरे अब पगड़ी के स्थान पर साफे या टोपी का प्रचार बढ़ता जा रहा है। ग्रामीण लोग अधिकतर मोटे कपड़े की धोती, बगलबंदी और फेंटा काम में लाते हैं। स्रियो की पोशाक लहंगा, चोली और दुपट्टा है। मुसलमान औरतों की पोशाक चुस्त पाजामा, लम्बा कुरता और दुपट्टा है उनमें से कई तिलक भी पहनती है।

भाषा

यहाँ के अधिकांश लोगों की भाषा मारवाड़ी है, जो राजपूताने में बोली जानेवाली भाषाओं में मुख्य है। यहाँ उसके भेद थली, बागड़ी तथा शेखावटी की भाषाएं हैं। उत्तरी भाग के लोग मिश्रित पंजाबी अथवा जाटों की भाषा बोलते हैं। यहाँ की लिपि नागरी है, जो बहुधा घसीट रूप में लिखी जाती है। राजकीय दफ्तरों तथा कर्यालयों में अंग्रेजी एवं हिन्दी का प्रचार है।

दस्तकारी


भेड़ों की अधिकता के कारण यहाँ ऊन बहुत होता है, जिसके कबंल, लोईयाँ आदि ऊनी समान बहुत अच्छे बनते हैं। यहाँ के गलीचे एवं दरियाँ भी प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त हाथी दाँत की चूड़ियाँ, लाख की चूड़ियाँ तथा लाख से रंगी हुई लकड़ी के खिलौने तथा पलंग के पाये, सोने-चाँदी के ज़ेवर, ऊँट के चमड़े के बने हुए सुनहरी काम के तरह-तरह के सुन्दर कुप्पे, ऊँटो की काठियाँ, लाल मिट्टी के बर्त्तन आदि यहाँ बहुत अच्छे बनाए जाते हैं। बीकानेर शहर में बाहर से आने वाली शक्कर से बहुत सुन्दर और स्वच्छ मिश्री तैयार की जाती है जो दूर-दूर तक भेजी जाती है।

साहित्य

साहित्य की दृष्टि से बीकानेर का प्राचीन राजस्थानी साहित्य ज्यादातर चारण, संत और जैनों द्वारा लिखा गया था। चारण राजा के आश्रित थे तथा डिंगल शैली तथा भाषा में अपनी बात कहते थे। बीकानेर के संत लोक शैली में लिखतें थे। बीकानेर का लोक साहित्य भी काफी महत्वपूर्ण है। राजस्थानी साहित्य के विकास में बीकनेर के राजाओं का भी योगदान रहा है उनके द्वारा साहित्यकारों को आश्रय़ मिलता रहा था। राजपरिवार के कई सदस्यों ने खुद भी साहित्य में जौहर दिखलायें। राव बीकाजी ने माधू लाल चारण को खारी गाँव दान में दिया था। बारहठ चौहथ बीकाजी के समकलीन प्रसिद्ध चारण कवि थे। इसी प्रकार बीकाने के चारण कवियों ने बिठू सूजो का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनका काव्य ‘राव जैतसी के छंद‘ डिंगल साहित्य में ऊँचा स्थान रखती है। बीकानेर के राज रायसिंह ने भी ग्रंथ लिखे थे उनके द्वारा ज्योतिष रतन माला नामक ग्रंथ की राजस्थानी में टीका लिखी थी। रायसिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज राठौड राजस्थानी के सिरमौर कवि थे वे अकबर के दरबार में भी रहे थे वेलि क्रिसन रुक्मणी री नामक रचना लिखी जो राजस्थानी की सर्वकालिक श्रेष्ठतम रचना मानी जाती है। बीकानेर के जैन कवि उदयचंद ने बीकानेर गजल (नगर वर्णन को गजल कहा गया है) रचकर नाम कमाया था। वे महाराजा सुजान सिंह की तारीफ करते थे।

ज्‍योतिषियों का गढ़

बीकानेर ज्‍योतिषियों का गढ़ है। यहाँ पूर्व राजघराने के राजगुरू गोस्‍वामी परिवार में अनेक विख्‍यात एवं प्रकांड ज्‍योतिषी एवं कर्मकांडी विद्वान हुए। ज्‍योतिष के क्षेत्र में दिवंगत पंडित श्री श्रीगोपालजी गोस्‍वामी का नाम देश-विदेश में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। ज्‍योतिष और हस्‍तरेखा के साथ तंत्र, संस्‍कृत और राजस्‍थानी साहित्‍य के क्षेत्र में भी श्रीगोपालजी अग्रणी विशेषज्ञों में शुमार किए जाते थे। पंडित बाबूलालजी शास्‍त्री, Late. Shivchand G Purohit (Manu Maharaj, Sagar) के जमाने में बीकानेर में ज्‍योतिष विद्या ने नई ऊंचाइयों को देखा। इसके बाद हर्षा महाराज, अशोक थानवी, प्रेम शंकर शर्मा, अविनाश व्यास और प्रदीप पणिया जैसे कृष्‍णामूर्ति पद्धति के प्रकाण्‍ड विद्वानों ने दिल्‍ली, कलकत्ता, मुम्‍बई और गुजरात में अपने ज्ञान का लोहा मनवाया। इसके अलावा अच्‍चा महाराज, व्‍योमकेश व्‍यास और लोकनाथ व्‍यास जैसे लोगों ने ज्‍योतिष में एक फक्‍कड़ाना अंदाज रखा। संभ्रांतता से जुडे इस व्‍यवसाय में इन लोगों ने औघड़ की भूमिका का निर्वहन किया है। नई पीढ़ी के ये ज्‍योतिषी अब पुराने पड़ने लगे हैं। अधिक कुण्‍डलियाँ भी नहीं देखते और नई पीढ़ी में भी अधिक ज्ञान वाले लोगों को एकान्तिक अभाव नजर आता है।

तांत्रिकों का स्‍थान

बीकानेर में तंत्र से जुडे भी कई फिरके हैं। इनमें जैन एवं नाथ संप्रदाय तांत्रिक अपना विशेष प्रभाव रखते हैं। मुस्लिम तंत्र की उपस्थिति की बात की जाए तो यहाँ पर दो जिन्‍नात हैं। एक मोहल्‍ला चूनगरान में तो दूसरा गोगागेट के पास कहीं। गोगागेट के पास ही नाथ संप्रदाय के दो एक अखाड़े हैं। गंगाशहर और भीनासर में जैन समुदाय का बाहुल्‍य है। ऐसा माना जाता है कि जैन मुनियों को तंत्र का अच्‍छा ज्ञान होता है लेकिन यहाँ के स्‍थानीय वाशिंदों ने कभी प्रत्‍यक्ष रूप से उन्‍हें तांत्रिक क्रियाएं करते हुए नहीं देखा है।

पर्व एवं त्योहार


यहाँ हिंदुओं के त्योहारों में शील-सप्तमी, अक्षय तृतीया, रक्षा बंधन, दशहरा, दिवाली और होली मुख्य हैं। राजस्थान के अन्य राज्यों की तरह यहाँ गनगौर, दशहरा, नवरात्रा, रामनवमी, शिवरात्री, गणेश चतुर्थी आदि पर्व भी हिंदुओं द्वारा मनाया जाता है। तीज का यहाँ विशेष महत्व है। गनगौर एवं तीज स्रियों के मुख्य त्योहार हैं। रक्षाबंधन विशेषकर ब्राह्मणों का तथा दशहरा क्षत्रियों का त्योहार है। दशहरे के दिन बड़ी धूम-धाम के साथ महाराजा की सवारी निकलती है। मुसलमानों के मुख्य त्योहार मुहरर्म, ईदुलफितर, ईद उलजुहा, शबेबरात, बारह रबीउलअव्वल आदि है। महावीर जयंती एवं परयुशन जैनों द्वारा मनाया जाता है। यहाँ के सिख देश के अन्य भागों की तरह वैशाखी, गुरु नानक जयंती तथा गुरु गोविंद जयंती उत्साह के साथ मनाते है।