बिठूर प्रसिद्ध हिन्दू धार्मिक स्थल है जो कानपुर, उत्तर प्रदेश में स्थित है। यह स्थल महान् क्रांतिकारी तात्या टोपे, नाना राव पेशवा और रानी लक्ष्मीबाई जैसे क्रांतिकारियों की यादें अपने दामन में समेटे हुए है। यह ऐसा दर्शनीय स्थल है, जिसे ब्रह्मा, महर्षि वाल्मीकि, वीर बालक ध्रुव, माता सीता और लव कुश ने किसी न किसी रूप में अपनी कर्मस्थली बनाया। बिठूर वाल्मीकि के तप स्थिली के रूप में जानी जाती है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम का जिक्र होते ही बिठूर से जुड़ी तमाम यादें जेहन में कौंध जाती हैं।
बिठूर में नाना साहब पेशवा की अगुवाई में तात्याटोपे, अजीमुल्ला के साथ लड़ी गई लड़ाई की यादें आज भी ताजा हैं। साथ ही त्रेता युग में भगवान श्रीराम ने मां सीता को अयोध्या से निकाला था तो वह लखनऊ होते हुए बिठूर में ठहरीं थीं। यहीं पर वाल्मीकि से मिलीं और लव-कुश को जन्म दिया था। मां सीता मंदिर के पुजारी राजीव शुक्ला का कहना है कि आप चाहे पूरी दुनिया का भ्रमण कर लें, लेकिन अगर सच में भगवान राम को पाना है तो गंगा के किनारे बसे इस कस्बे में एक बार जरुर आएं।
यहां से ब्रह्मा ने की थी सृष्टि की रचना बिठूर का इतिहास हिंदू शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के पूर्व यहं तपस्या की थी। इसी के तहत आज भी ब्रह्मावर्त घाट है, यहां पर हर रोज सैकड़ों की संख्या में लोग दर्शन के लिए आते हैं। यहीं पर ध्रुव ने भगवान विष्णु की तपस्या की थी। महर्षि वाल्मीकि की तपोभूमि बिठूर को प्राचीन काल में ब्रह्मावर्त नाम से जाना जाता था। शहरी शोर शराबे से उकता चुके लोगों को कुछ समय बिठूर में गुजारना काफी रास आता है। बिठूर में ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के अनेक पर्यटन स्थल हैं। गंगा किनारे बसे इस नगर का उल्लेख प्राचीन भारत के इतिहास में मिलता है। अनेक कथाएं और किवदंतियां यहां से जुड़ी हुई हैं।
यहीं से निकली थी पहली विद्रोह की ज्वाला भारत की आजादी के लिए हुए स्वतंत्रता संग्राम व आंदोलन का बिठूर से गहरा रिश्ता रहा है। 1857 में भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम का श्रीगणेश बिठूर से ही हुआ था। यह कस्बा कानपुर से 17 किलोमीटर दूर कन्नौज रोड पर स्थित है। बिठूर गंगा किनारे एक छोटा.सा कस्बा है जो किसी जमाने में सत्ता का केंद्र हुआ करता था। आज भी यहां की पुरानी ऐतिहासिक इमारतें बारादरियां और मंदिर जीर्ण-शीर्ण हालत में पड़ी हैं लेकिन स्थानीय लोगों के पास इतिहास की वो यादें हैं जिनका पाठ हर बच्चे को स्कूलों में सिखाया जाता है।
गदर में बिठूर की भूमिकादेश की आजादी के लिए स्वतंत्रता संग्राम में बिठूर की भूमिका अतुलनीय है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का श्रीगणेश यहीं से हुआ था। यह नानाराव एवं तात्या टोपे जैसे लोगों की धरती रही है। टोपे परिवार की एक पीढ़ी आज भी बैरकपुर में है और यहीं झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का बचपन बीता। उसी दौर में कानपुर से अपनी जान बचाकर भाग रहे अंग्रेजों को सतीचौरा घाट पर मौत के घाट उतार दिया गया। बाद में उसके बदले में अंग्रेजों ने गांव के गांव तबाह कर दिए एवं एक एक पेड़ से लटका कर 20-20 लोगों को फांसी दे दी गई। जीत के बाद अंग्रेजों ने बिठूर में नानाराव पेशवा के महल को तो मटियामेट कर ही दिया था जब तात्या टोपे के रिश्तेदारों को 1860 में ग्वालियर जेल से रिहा किया गया तो उन्होंने बिठूर लौटकर पाया कि उनका घर भी जला दिया गया है।
यहीं पर है स्वर्ग की सीढ़ी बिठूर में बाबा राघवदास द्वारा बनवाए गए ध्वज स्थल पर ही बैठ कर कभी कानपुर से फूंके गए विरोध के बिगुल की योजना तैयार की गई थी। ध्वज स्थल पर लगा पत्थर गवाह है कि वहां पर नाना साहेब पेशवा के नेतृत्व में तात्याटोपे, अजीमुल्ला खां व राव साहब ने बैठक की थी। यहीं से देश भर की सशस्त्र क्रांति को संगठित करके आगे बढ़ने का संदेश दिया गया था। नाना के किले में ही एक पुराना कुंआ है किवदंती है कि इसी कुएं से ही नाना की सेना को पानी की आपूर्ति की जाती थी। बिठूर की सीमा में प्रवेश करते ही वहां वाल्मीकि आश्रम में बनी स्वर्ग की सीढ़ी से कभी क्रांतिकारी पूरे बिठूर व गंगा जी से अंग्रेजों की गतिविधियों पर नजर रखते थे। इस टावर में वर्ष के दिनों के बराबर 365 आले बने हैं। जिनमें रोज एक दिया जलाया जाता था इससे वहां रहने वालों को दिन की पहचान रहती थी।
बिठूर था 321 एकड़ का छावनी क्षेत्रकानपुर में अंग्रेजी हुकूमत ने फौज के लिए जहां पूरब दिशा में छावनी क्षेत्र विकसित किया, वहीं पश्चिम में रमेल, चौधरीपुरा, बिठूर खुर्द में 321 एकड़ में पेशवा बाजीराव के लिए कैंटोंमेंट एरिया बसाया गया, जिसे आराजी लश्कर भी कहा जाता है। यह क्षेत्र राजस्व अभिलेखों में आज भी आराजी लश्कर दर्ज है। तत्कालीन गवर्नर जनरल के निर्देश पर रमेल, चौधरीपुर, मोहम्मदपुर व बिठूर खुर्द में से 321 एकड़ भूमि अलग कर छावनी क्षेत्र बसाया गया। बाद में इस ग्राम का पूरा स्वामित्व बिठूर के सूबेदार के परिवार के तत्कालीन उत्तार-पश्चिम प्रांत के राज्यपाल से 1895 में 7,000 रुपये देकर खरीदा।
नानाराव के किले में प्रतिरक्षा कारखाना1858-59 में अंग्रेजों ने नाना के किले में कब्जा करने के बाद यहां अपनी फौज के घुड़सवार दस्ते के लिए चमड़े का साजो-सामान तैयार करने की यूनिट खोली थी। रक्षा मंत्रालय ने तीन दशक पहले हार्नेस एंड सैडलरी फैक्ट्री का नाम बदल कर भले ही ओईएफ (आर्डनेंस इक्विपमेंट फैक्ट्री) कर दिया हो, लेकिन आज भी शहर में लोग इसे किला के नाम से ही पुकारते हैं। ओईएफ स्टेडियम के पास बने फैक्ट्री के हास्पिटल में रखा नानाराव पेशवा के जमाने का नावों का लंगर और बिठूर तक जाने वाली सुरंग भी है। बताते हैं यह सुरंग इतनी चौड़ी थी कि इसमें एक साथ दो घुड़सवार दौड़ सकते थे। फैक्ट्री के बाहरी हिस्से में आज भी पुराने किले की झलक दूर से नजर आती है।