
पहलगाम आतंकी हमले के बाद सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई इमरान हाशमी अभिनीत फिल्म ग्राउण्ड जीरो को लेकर दर्शकों में उत्साह नजर आया है। हालांकि फिल्म को लेकर पहले इतना बज नजर नहीं आ रहा था लेकिन पिछले तीन दिन के अंदर पहलगाम हमले के चलते जो तनाव भारत पाकिस्तान के मध्य पैदा हुआ है, उससे दर्शक इस फिल्म को देखने के लिए सिनेमाघरों की ओर रुख करने लगे हैं। वैसे फिल्म को बनाया भी बेहतरीन तरीके से गया है, जिसमें अभिनय के साथ-साथ फिल्म के एक्शन दृश्यों, सिनेमेटोग्राफी और दमदार क्लाइमैक्स ने दर्शकों को खासा आनन्दित किया है।
‘ग्राउंड ज़ीरो’ एक नो-नॉनसेंस थ्रिलर है जो अंत तक बांधे रखती है। इमरान हाशमी की संयमित परफॉर्मेंस, एक सामाजिक संदेश और दमदार क्लाइमेक्स इस फिल्म को देखने लायक बनाते हैं। अगर फिल्म को अच्छा वर्ड ऑफ माउथ मिला, तो ये थिएटर्स में अपनी जगह बना सकती है।
‘ग्राउंड ज़ीरो’ की कहानी 2001 के कश्मीर में तैनात बीएसएफ डिप्टी कमांडेंट नरेंद्र नाथ धर दुबे (इमरान हाशमी) के इर्द-गिर्द घूमती है। श्रीनगर में ‘पिस्टल गैंग’ नामक आतंकी संगठन जवानों को निशाना बना रहा है। नरेंद्र को जानकारी मिलती है कि एक बड़ा हमला होने वाला है। वह सोचता है कि टारगेट कश्मीर है, लेकिन असली हमला दिल्ली के संसद भवन पर होता है — 13 दिसंबर 2001 की वो काली तारीख। इस हमले की ज़िम्मेदारी लेता है खतरनाक आतंकवादी ग़ाज़ी बाबा, जिसकी पहचान एक रहस्य बनी हुई है।
नरेंद्र की तलाश में मदद करता है हुसैन (मीर महरूज़) — एक ब्रेनवॉश किया गया युवक, जो नरेंद्र से टकराने आता है, लेकिन बदल जाता है। फिल्म यहीं से एक मानवीय मोड़ लेती है और दिखाती है कि शांति केवल गोलियों से नहीं, दिल जीतने से आती है।
सधा हुआ निर्देशन और बेहतरीन लेखनतेजस प्रभा विजय देओसकर का निर्देशन सधा हुआ है। फिल्म बिना भावनात्मक ड्रामा के सीधे मिशन पर फोकस करती है। लेखकों संचित गुप्ता और प्रियदर्शी श्रीवास्तव की कहानी सच्ची घटनाओं से प्रेरित है और असर छोड़ती है, हालांकि स्क्रीनप्ले बीच-बीच में ढीला पड़ता है और कुछ दृश्य पुराने लगते हैं।
क्लाइमेक्स दमदार है और ‘जीरो डार्क थर्टी’ जैसी फिल्मों की याद दिलाता है, पर भारतीय संदर्भ में ढाला गया है।
कलाकारों का अभिनयइमरान हाशमी एक सधे हुए सोल्जर के किरदार में फिट बैठते हैं। ना कोई ओवरएक्टिंग, ना ज़रूरत से ज्यादा डायलॉगबाज़ी — बस एक असरदार परफॉर्मेंस। मीर महरूज़ ने हुसैन के किरदार में दिल छू लेने वाला काम किया है। साई तम्हणकर और ज़ोया हुसैन ने अपने-अपने हिस्से में अच्छा योगदान दिया है। सपोर्टिंग कास्ट भी प्रभाव छोड़ती है, खासकर राम अवतार, जो अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका में बिल्कुल उन्हीं जैसे दिखते हैं।
फिल्म का संगीत पक्ष कुछ कमजोर हैं। फिल्म में चार गाने हैं जो जो याद नहीं रहते। चारों ट्रैक्स औसत दर्जे के हैं लेकिन तारीफ करेंगे जॉन स्टीवर्ट एडुरी के बैकग्राउंड स्कोर की, जो फिल्म की गंभीरता बढ़ाता है। फिल्म का कैमरा वर्क खासकर एक्शन और एरियल शॉट्स लाजवाब हैं। एक्शन रियलिस्टिक है, ज्यादा गोर नहीं किया गया है।
इस फिल्म की सफलता सबसे बड़ा हाथ वर्तमान में भारत पाकिस्तान के मध्य पैदा हुए तनाव का रहेगा। शुक्रवार को सिनेमाघरों में फिल्म देखते हुए कई दर्शकों ने भारत माता की जय के नारे लगाते हुए फिल्म को सपोर्ट किया। अगर यह स्थिति माउथ पब्लिसिटी में बदलती है तो निश्चित रूप से फरहान अख्तर और रितेश सिद्धवानी निर्मित ग्राउण्ड जीरो निर्माताओं के लिए फायदे का सौदा साबित होगी।