फिल्म समीक्षा - अक्टूबर : दर्शकों के साथ शूजित सरकार का धोखा व छल

उम्र के 55वें पड़ाव पर अपनी जिन्दगी की पहली महिला मित्र के साथ शूजित सरकार की फिल्म ‘अक्टूबर’ यह सोचकर देखने गया था कि ढलती उम्र में जवानी का प्रेम कैसा होता है, उसे महसूस कर सकूं। लेकिन फिल्म देखने के बाद जिज्ञासाओं पर जो कुठाराघात हुआ उससे न सिर्फ मन आहत हुआ अपितु खर्च किए गए 500 रुपये दुखने लगे। सोचा था अरसे बाद कोई ऐसी प्रेम कहानी आई है, जिसका गीत संगीत पक्ष बेहद सुरीला है लेकिन अफसोस इस फिल्म में कोई गीत ही नहीं है। शूजित सरकार ने दर्शकों के साथ बहुत बड़ा धोखा किया है। यदि आप इस फिल्म के गीतों के लिए फिल्म देखने जा रहे हैं तो बिलकुल न जाएं। अपना समय और पैसा बर्बाद न करें।

चलिए बात करते हैं समीक्षक के तौर पर—


‘अक्टूबर’ की बेसिक स्टोरी लाइन 2013 में आए अमेरिकन ड्रामा ‘हर’ से प्रेरित है। ‘हर’ फिल्म को बेस्ट ओरिजनल स्क्रीनप्ले के लिए ऑस्कर अवॉर्ड से नवाजा गया था। ये फिल्म एक अकेले रहने वाले तनावग्रस्त शख्स की कहानी कहती है, जिसे आर्टिफीशियल इंटलीजेंस से प्यार हो जाता है। अब वरुण धवन की ‘अक्टूबर’ में भी यही बात है।

डैन (वरुण धवन) जो कि एक होटल मैनेजमेंट का स्टूडेंट है उसे अपने ही होटल में काम करने वाली लडक़ी से प्यार हो जाता है। वह अपने सहकर्मियों से पूछता है कि क्या वह मेरे बारे में बात करती है ओर एक दिन फिर फिल्म की नायिका अस्पताल पहुंच जाती है। अब डैन जिसकी कभी नायिका से बात भी नहीं हुई है, उसका ख्याल रखने लगता है।

‘अक्टूबर’ में डैन के हमें दो रूप देखने को मिलते हैं। वह दुनियादारी और नियम-कायदों से चलने पर चिढ़ता है। वह ऐसी राह पर था जिस पर चलना उसे पसंद नहीं है, लिहाजा वह बात-बात पर उखडऩे लगता है। उसे किसी तरह का दबाव पसंद नहीं है और दबाव पडऩे पर वह फट जाता है।

डैन का होटल से अलग रूप हॉस्पिटल में देखने को मिलता है। यहां उसकी अच्छाइयां नजर आती हैं। वह शिउली के ठीक होने की आशा उसके परिवार वालों में जगाए रखता है। होटल में नियम तोडऩे वाले डैन को जब हॉस्पिटल में बिस्किट खाने से रोका जाता है तो वह मुंह से बिस्किट निकाल लेता है। होटल के व्यावसायिक वातावरण में शायद उसका दम घुटता था, जहां दिल से ज्यादा दिमाग की सुनी जाती है। हॉस्पिटल में दिल की ज्यादा चलती थी इसलिए वह नर्स और गार्ड से भी बतिया लेता था।

जूही चतुर्वेदी ने फिल्म की स्टोरी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखे हैं। जूही ने ‘अक्टूबर’ के माध्यम से कहने की कोशिश की है कि व्यक्ति का व्यवहार पूरी तरह से परिस्थितियों पर निर्भर करता है और इसलिए उसका आंकलन करते समय सभी बातों पर गौर करना चाहिए।

फिल्म में घटनाक्रम और संवाद बेहद कम हैं। साथ ही कहानी भी बेहद संक्षिप्त है। शूजित सरकार का निर्देशन बोझिल है, हालांकि चरित्रों को उन्होंने सीमित लेकिन गहराई से प्रस्तुत किया है, फिर चाहे वह नर्स हो, डॉक्टर हो या फिर गार्ड हो। साथ ही फिल्म की धीमी गति बोरियत पैदा करती है। लेकिन शूजित, डैन के मन में उमड़ रहे भावनाओं के ज्वार से दर्शकों का कनेक्शन बैठाने में कामयाब रहे हैं। निश्चित रूप से यह बात बेहद कठिन थी।

बात अगर अभिनय की कि जाए तो पूरी फिल्म वरुण धवन के इर्द गिर्द रही है। उन्होंने फार्मूला फिल्मों से इतर इस फिल्म में अपने अभिनय का अलग रंग दिखाया है। उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया है। हर सिचुएशन में उनके किरदार की प्रतिक्रिया और सोच एकदम अलग होती है और इस बात को उन्होंने अपने अभिनय से निखारा है। बनिता संधू ने बमुश्किल एक-दो संवाद बोले होंगे। ज्यादातर समय उन्हें मरीज बन कर बिस्तर पर लेटना ही था, लेकिन बिस्तर पर लेटे-लेटे भी उन्होंने अपने चेहरे के भावों से दर्शाया है कि वे अभिनय में निपुण हैं।

शिउली की मां के रूप में गीतांजलि राव और डैन के सीनियर के रूप में प्रतीक कपूर का अभिनय भी जोरदार है। अविक मुखोपाध्याय की सिनेमाटोग्राफी शानदार है। ठंड और कोहरे में लिपटी दिल्ली, आईसीयू और फाइव स्टार के माहौल को उन्होंने कैमरे से बखूबी पकड़ा है।

फिल्म के ट्रेलर में इसके गीत-संगीत ने जो हलचल पैदा की थी वह यहाँ नदारद है। फिल्म में एक भी गीत नहीं दिखाया गया है। बिना गीतों की धीमी गति की फिल्म को देखना पूरी तरह से ऊबाउ है। साथ ही ट्रेलर में जिन दृश्यों को दिखाया गया यहाँ फिल्म में वो भी पूरे नहीं हैं।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यह फिल्म अगर आप इसके गीतों के चलते या शूजित सरकार के कारण देखने जा रहे हैं तो मत जाइएगा। यह पूरी तरह से आपको निराश करेगी।