Janmashtami 2019: श्रीमदभगवतगीता के अनुसार सभी देवता हैं एक ही भगवान का अंश, जानें इसके दूसरे छ: अध्यायों का सारांश

आज पूरे भारतवर्ष में जन्माष्टमी का महोत्सव मनाया जा रहा है। इस दिन सभी बालगोपाल की पूजा कर उनकी सेवा करते हैं। आज इस पावन पर्व के मौके पर हम आपको जीवन का सार बताने वाली श्रीमदभगवतगीता के कुछ अध्यायों के सारांश से जुड़ी जानकारी लेकर आए हैं जिसके अनुसार सभी देवताओं को भगवान विष्णु का ही अंश बताया गया हैं। इस कड़ी में हम आपको श्रीमदभगवतगीता के दूसरे छ: अध्यायों का सारांश बताने जा रहे हैं। तो आइये जानते है इसके बारे में।

सातवां अध्याय
सातवें अध्याय की संज्ञा ज्ञानविज्ञान योग है। विज्ञान की दृष्टि से अपरा और परा प्रकृति के इन दो रूपों की व्याख्या गीता ने दी है। अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं, पंचभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें ईश्वर की चेष्टा के संपर्क से जो चेतना आती है उसे परा प्रकृति कहते हैं, वही जीव है। आठ तत्वों के साथ मिलकर जीवन नवां तत्व हो जाता है। इस अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है।

आठवां अध्याय
इस अध्याय की संज्ञा अक्षर ब्रह्मयोग है। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ और गीता में उसे अक्षरविद्या का सार कह दिया गया है। अक्षर ब्रह्म परमं, मनुष्य, अर्थात् जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। गीता के शब्दों में ॐ एकाक्षर ब्रह्म है।

नवां अध्याय
नवें अध्याय को राजगुह्ययोग कहा गया है, अर्थात् यह अध्यात्म विद्या और गुह्य ज्ञान सबमें श्रेष्ठ है। मन की दिव्य शक्तियों को किस प्रकार ब्रह्ममय बनाया जाय, इसकी युक्ति ही राजविद्या है। इस क्षेत्र में ब्रह्मतत्व का निरूपण ही प्रधान है। वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, और मृत्यु, संत और असंत, और जितने भी देवी देवता है, सबका पर्यवसान ब्रह्म में है।

दसवां अध्याय
इस अध्याय का नाम विभूतियोग है। इसका सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान का अंश हैं। मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। देवताओं की सत्ता को स्वीकारते हुए सबको विष्णु का रूप मानकर समन्वय की एक नई दृष्टि प्रदान की गर्इ है जिसका नाम विभूतियोग है।

ग्याहरवां अध्याय
ग्यारहवें अध्याय का नाम विश्वरूपदर्शन योग है। इसमें अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप देखा। विराट रूप का अर्थ है मानवीय धरातल और परिधि के ऊपर जो अनंत विश्व का प्राणवंत रचनाविधान है, उसका साक्षात दर्शन।

बारहवां अध्याय
जब अर्जुन ने भगवान का विराट रूप देखा तो वह घबरा गया और घबराहट में उसके मुंह से ‘दिशो न जाने न लभे च शर्म’ वाक्य निकले। उसने प्रार्थना की, कि मानव के लिए जो स्वाभाविक स्थिति ईश्वर ने रखी है, वही पर्याप्त है।