संत कबीरदास जयंती: जिन्होंने जाति, धर्म और बाह्य आडंबरों को ठुकराकर भक्ति को जन-जन से जोड़ा

हर साल ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को संत कबीरदास जयंती मनाई जाती है। यह दिन सिर्फ एक महान संत और कवि की स्मृति नहीं है, बल्कि सामाजिक जागरूकता, धर्मनिरपेक्षता और मानवीय मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा का प्रतीक भी है। कबीर केवल भक्ति के नहीं, बल्कि विवेक के भी संत थे, जिन्होंने धर्म, जाति और सामाजिक बंधनों को प्रश्नों के घेरे में लाकर जनमानस को आत्मचिंतन की राह दिखाई।

कबीर: जन्म नहीं विचारधारा से परिचय जरूरी है

कबीर का जन्म और जीवन अब भी रहस्य से घिरे हैं। यह माना जाता है कि वे 15वीं शताब्दी में काशी (वर्तमान वाराणसी) में जन्मे थे। कुछ मान्यताओं के अनुसार उनका पालन-पोषण नीरू और नीमा नामक जुलाहा मुस्लिम दंपति ने किया। हालांकि, कबीर ने कभी अपने जन्म को महत्त्व नहीं दिया। उनका कहना था कि मनुष्य के कर्म और विचार ही उसकी असली पहचान होते हैं, न कि उसका धर्म या जाति।

कबीर की वाणी: सीधी, सटीक और चेतना जगाने वाली

कबीर के दोहे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे। उनकी भाषा अवधी, ब्रज और लोकबोली से जुड़ी हुई थी, जो आमजन की समझ में आसानी से आ जाती थी। उदाहरण के लिए:

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

इन दो पंक्तियों में आत्मनिरीक्षण और विनम्रता की जो सीख दी गई है, वह आज के युग में भी उतनी ही आवश्यक है।

धर्म और पाखंड पर तीखा प्रहार

कबीर ने अपने समय में व्याप्त धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद और बाह्य आडंबरों का कड़ा विरोध किया। वे मस्जिद की अजान और मंदिर की घंटियों के बीच एक ऐसे सत्य की खोज करते नजर आते हैं जो आत्मा से जुड़ा हो, न कि किसी संप्रदाय से। उनका यह कथन अत्यंत प्रसिद्ध है:

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।


कबीर धर्म में कर्मकांड की जगह आत्मिक साधना को प्राथमिकता देते थे।

भक्ति आंदोलन में कबीर की भूमिका

कबीर उन शुरुआती संतों में से थे जिन्होंने भक्ति आंदोलन को गति दी। उन्होंने न केवल ईश्वर को निर्गुण (बिना रूप वाला) बताया, बल्कि उसे हर जीव में समाहित बताया। उनका यह विचार समाज को संकीर्णता से निकालकर समरसता की ओर ले गया।

संत कबीर जयंती का महत्व

संत कबीर दास न केवल भक्तिकाल के महान संत माने जाते हैं, बल्कि समाज सुधार और निर्गुण भक्ति के प्रवर्तक भी थे। उनकी वाणी आज भी जनमानस का मार्गदर्शन करती है। कबीर जयंती पर देशभर में उनकी रचनाओं का पाठ, सत्संग और भजन संध्याएं आयोजित की जाती हैं। कई स्थानों पर उनके जन्मस्थल मगहर और वाराणसी में विशेष आयोजन होते हैं।

आज जब समाज एक बार फिर जाति, धर्म और समुदाय के नाम पर बंट रहा है, तब कबीर की सीख और अधिक प्रासंगिक हो जाती है। कबीर हमें सिखाते हैं कि भक्ति का मार्ग सिर्फ मंदिर-मस्जिद नहीं, बल्कि मानवता और सत्य की पहचान है। अगर उनके विचारों को व्यवहार में लाया जाए तो सामाजिक समरसता, धार्मिक सहिष्णुता और आंतरिक आत्मबोध की स्थापना संभव है।

संत कबीरदास न तो सिर्फ कवि थे और न ही सिर्फ संत, वे एक चेतना थे – जो आज भी जीवित है। उनकी जयंती न केवल उन्हें स्मरण करने का दिन है, बल्कि आत्मनिरीक्षण का भी अवसर है। क्या हम आज कबीर की वाणी को अपने जीवन में उतार पा रहे हैं? यह प्रश्न हर व्यक्ति को स्वयं से पूछना चाहिए।