गणगौर का पर्व चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है, इसे गौरी तृतीया भी
कहते हैं। होली के दूसरे दिन से जो कुँवारी,
विवाहित और नवविवाहित महिलाएं प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं और चैत्र शुक्ल
द्वितीया (सिंजारे) के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई
गणगौरों को पानी पिलाती हैं। यह व्रत विवाहित महिलाएं पति का प्यार और
स्नेह पाने के लिए
करती हैं। इस व्रत को करने से कुवांरी लड़कियों को उत्तम पति मिलता है और
सुहागिनों का सुहाग अखण्ड रहता है। इसमें कुँवारी कन्या पूरी तरह से तैयार
होकर और विवाहित महिलाएं सोलह श्रृंगार करती है , और फिर गणगौर पूजती है।
राजस्थान का अत्यंत विशिष्ट त्योहार
राजस्थान का तो यह अत्यंत विशिष्ट त्योहार है। इस दिन भगवान शिव ने पार्वती
को तथा
पार्वती ने समस्त स्त्री समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था। गणगौर माता की
पूरे राजस्थान में पूजा की जाती है।इस दिन भगवान शिव ने पार्वती जी को तथा
पार्वती जी ने समस्त स्त्री समाज को
सौभाग्य का वरदान दिया था। सुहागिनें व्रत धारण से पहले मिट्टी की गौरी की
स्थापना करती है एवं उनका पूजन किया जाता है। इसके पश्चात गौरी
जी की कथा कही जाती है।कथा के बाद गौरी जी पर चढ़ाए हुए सिन्दूर से
स्त्रियाँ अपनी माँग भरती हैं।
उत्सव और अनुष्ठान
गौरी पूजन का यह त्योहार भारत
के सभी प्रांतों में थोड़े-बहुत नाम भेद से पूर्ण धूमधाम के साथ मनाया
जाता हैं। इस दिन स्त्रियां सुंदर वस्त्र औ आभूषण धारण करती हैं। गणगौर पर
विशेष रूप से मैदा के गुने बनाए जाते हैं। लड़की की शादी के बाद
लड़की पहली बार गणगौर अपने मायके में मनाती है और इन गुनों तथा सास के
कपड़ो का बायना निकालकर ससुराल में भेजती है। यह विवाह के प्रथम वर्ष
में ही होता है, बाद में प्रतिवर्ष गणगौर लड़की अपनी ससुराल में ही मनाती
है। ससुराल में भी वह गणगौर का उद्यापन करती है और अपनी सास को बायना,
कपड़े तथा सुहाग का सारा सामान देती है। साथ ही सोलह सुहागिन स्त्रियों को
भोजन कराकर प्रत्येक को सम्पूर्ण शृंगार की वस्तुएं और दक्षिण दी जाती है।
गणगौर पूजन के समय स्त्रियाँ गौरीजी की कथा भी कहती हैं।
मस्ती का पर्व
होली
के दूसरे दिन से ही गणगौर का त्योहार आरंभ हो जाता है जो पूरे सोलह दिन तक
लगातार चलता रहता है। गणगौर के त्योहार को उमंग, उत्साह और जोश से मनाया
जाता है। यह उत्सव मस्ती का पर्व है। इसमें कन्याएँ और विवाहित स्त्रियाँ
मिट्टी के ईशर और गौर बनाती है। और उनको सुन्दर पोशाक पहनाती है और उनका
शृंगार करती हैं। स्त्रियाँ और कन्याएँ भी इस दिन गहने और कपड़ों से
सजी-धजी रहती हैं। और गणगौर के दिन कुँआरी कन्याएँ एक खेल भी खेलती है
जिसमें एक लड़की दूल्हा और दूसरी दूल्हन बनती हैं। जिन्हें वे ईशर और गौर
कहते हैं और उनके साथ सखियाँ गीत गाती हुई उन दोनों को लेकर अपने घर से
निकलती है और सब मिलकर एक बगीचे पर जाती है वहाँ पीपल
के पेड़ के जो इसर और गौर बने होते है वो दोनों फेरे लेते हैं। जब फेरे
पूरे हो जाते है तब ये सब नाचती और गाती है। उसके बाद ये घर जाकर उनका पूजन
करती हैं, और भोग लगाती हैं और शाम को उन्हें पानी पिलाती हैं। अगले दिन
वे उन मिट्टी के इसर और गौर को ले जाकर किसी भी नदी में उनका विसर्जन कर
देती हैं।