श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का महोत्सव 3 सितम्बर को मनाया जा रहा हैं। इस दिन सभी मंदिरों में भगवान कृष्ण को पूजा-अर्चना की जाती हैं। इसी के साथ श्रीकृष्ण के जीवन से सीखने वाली चीजों का ध्यान किया जाता हैं। ज्ञान के लिए लिए सबसे अच्छा साधन है श्रीमद्भगवदगीता। आज हम आपको इसके प्रथम तीन अध्यायों का संशिप्त रो बताने जा रहे हैं, जो हमें कई सीख देता हैं। तो आइये जानते हैं श्रीमद्भगवदगीता के प्रथम तीन अध्यायों का महत्व।
* प्रथम अध्यायपहले अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। जब शौर्य और धैर्य, साहस और बल इन चारों गुणों से युक्त अर्जुन पर क्षमा और प्रज्ञा यानि बुद्घि का प्रभाव बढ़ा और उन्होंने युद्घ भूमि में हथियार डाल दिए तब उनके क्षात्रधर्म का स्थान कार्पण्य ने लिया। तब कृष्ण ने तर्क से, बुद्धि से, ज्ञान से, कर्म की चर्चा से, विश्व के स्वभाव से, उसमें जीवन की स्थिति से, दोनों के नियामक अव्यय पुरुष के परिचय से और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन को वापस प्रेरित किया। इस अध्याय में इसी तत्वचर्चा परिचय दिया गया।
* दूसरा अध्यायइस अध्याया का नाम सांख्ययोग है। इसमें जीवन की दो प्राचीन संमानित परंपराओं का तर्कों द्वारा वर्णन आया है। अर्जुन को उस कृपण स्थिति में रोते देखकर कृष्ण ने उसका ध्यान दिलाया है कि इस प्रकार का क्लैव्य और हृदय की क्षुद्र दुर्बलता अर्जुन जैसे वीर के लिए उचित नहीं। उन्होंने बताया कि प्रज्ञादर्शन काल, कर्म और स्वभाव से होनेवाले संसार की सब घटनाओं और स्थितियों को अनिवार्य रूप से स्वीकार करता है। जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना, सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं।
* तीसरा अध्यायइस अध्याय में अर्जुन ने इस विषय में और गहरा उतरने के लिए स्पष्ट प्रश्न किया कि सांख्य और योग इन दोनों मार्गों में आप किसे अच्छा समझते हैं और क्यों नहीं यह निश्चित बतसते कि वे इन दोनों में से किसे अपनायें। इसपर कृष्ण ने स्पष्टता से उत्तर दिया कि लोक में दो निष्ठायें या जीवनदृष्टियां हैं। सांख्यवादियों के लिए ज्ञानयोग है और कर्ममार्गियों के लिए कर्मयोग है। अर्थात् जो साधारण समझ के लोग कर्म में लगे हैं उन्हें उस मार्ग से उखाड़ना उचित नहीं, क्योंकि वे ज्ञानवादी बन नहीं सकते, और यदि उनका कर्म भी छूट गया तो वे दोनों ओर से भटक जायेंगे।